Thursday 23 November 2017

मूक ...

इतिहास से हुई जो छेड़छाड़ गलत है,

चाहे होने दो यहाँ आज की हार,

और जब सोचता है इंसान इतना तो,

फिर क्यूँ करता यहाँ भाई, भाई पे वार।


रुक जाता सब गर कोई नेता गुजर जाए,

थम जाती हैं साँसे लाखों की ये सुन तब,

और कोई नही टोकता देख के साजिशों को,

फिर क्यूँ करते भीड़ में दिखावे का नाटक सब।


देखा है मैंने अंगारे आँखों में भीड़ के,

उठ खड़े होते हैं सोते हुए भी इस होड़ में,

शिकार बनते हैं जो अक्सर मौसम के मुताबिक,

वो भी चूकते नहीं होने से इस दौड़ में।


बैंगलुरु की हो बात या सियाचिन का हाल,

सबमे है यहाँ मौके पे पीठ दिखा देने की चाल,

और फिर कई, गलतियों पे प्रश्न उठाते हैं,

क्यूँ पूछते नहीं लोग खुद से यही सब सवाल।


इंसान की हालत देख सच्चा कोई बर्फ ओढ़ गया,

सच्ची लगन थी फिर भी बहस का मुद्दा छोड़ गया,

सिर्फ बात तिरंगे की करने वालो पे खुश हुआ लेकिन,

फिर लड़ न सका इस वहम से तो मुहँ खुद ही मोड़ गया।


भीड़ में चलने और चरने की सबकी आदत है,

कोई हो सच्चे मन का तो हुई उसकी शहादत है,

रिवाज अनोखे से, अनदेखा करना सही सोच को,

बड़बोला मैं भी और यूँही चल रही चुप्पियों की रिवायत है।

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