बचपन के वो दिन पास आते हैं,
रुखी सी इस जिंदगी में एक आस लाते हैं,
बारिश में वो काग़ज़ की कश्ती देख,
दूर छोड़ सब सैयम , मस्ती और विवेक,
रुक के थोडा ये दिमाग सोचता है,
दूर जाते देख सब, दिल को यूँ खारोचता है,
मिटटी के घर और घरौंदे रोज़ सनते थे,
अरमानों के किले हर मोड़ ही बनते थे,
जीना इतना मुश्किल होगा ये गर जानते तो,
बड़े होने की तमन्ना कभी रखते नहीं यूँ,
कागज़ की कश्ती, घर टूटे तो बहोत रो गए,
दिल और रिश्ते टूटने पे ये आंसू कुछ कम हो गए,
पर मेहेरबान हूँ इतने ख्वाब बुन के,
ख़ुशी और दुःख को एक एक कर चुन के,
परास्त हुआ तो सीखा है जीने का सलीका नया,
बुलंदियों की ही नहीं, हार की दास्ताँ भी करता हूँ बयां...
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