गुजरती हुई इस राह पे जब बैठूँ सोचने,
बटोरने को ज्यादा और संजोना बड़ा है,
आज देखता हुँ जब इंसान की नियत,
मुसीबत बहोत और सुधारना कड़ा है,
लालच, गुनाह और सब देखूं प्रयाप्त,
अब मुश्किल बढ़ी है और रोना बढ़ा है,
पथ पे पड़ी आहात जिस्म यूँ पुकारे बेसूद,
निवेदन ना सुनी और अब कैंडल लिए खड़ा है,
पूज्य तुम्हारी वो पत्थर की मूरत झूठी,
क्यों चुपचाप, शांत और अब मौन पड़ा है,
आँखे खोल ही नहीं, अपितु देख भी तो जरा,
भागती हुई ये दुनिया और मस्तिस्क जड़ा है,
समझो अब, जागो इंसान देर हो गयी बहोत,
निर्जीव की भक्ति और सजीव पे क्यों अड़ा है ||
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