Sunday 29 June 2014

||| सच्चे बनो ईश्वरवादी नहीं... |||











हाँ तो बुलावो फिर अपने भगवान को,
जिसे पूजते हो बड़े नाज़ से, उस पाषाण को,
और मेरे मनाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा,
क्या खत्म करेगा वो भीतर बैठे शैतान को...

क्यों नही है न कोई जवाब मेरे सवालों का,
क्या जवाब देगा वो, कभी जुर्म के मशालों का,
और बहोत देखा है मैंने सर झुकाते लाखों को,
तुम भी देखो दिल दुखाते, ढोंगी उन सलाखोँ को...

और मैं कौन हुँ जो पत्थर-प्रेमी की आलोचना करू,
सब मतलब के लोग और मैं भी उसी वन की एक तरु,
अपने कृत्य में रखो सार्थकता, मन की शान्ति पाने को,
खुद पे करो भरोसा, बर्बाद क्यों समय एक पत्थर मनाने को...

और अब ये रोष क्यों, मुझपे इतना और ये क्रोध भला क्यों,
चलो पुकार ही लो अपने भगवान को, मुझे मिटने को यूँ,
जागो और मेरी मानो तो व्यर्थ ही ये प्रयत्न क्यों करना,
खुद में सच्चाई लाओ, एक पाषाण से ऐसा भी क्या डरना...

अब तुम कहोगे की ये आस्था है, विस्वास है कोई डर नहीं,
तो मरते हैं, बिलकते हैं विनाश में उनकी क्यों कोई कदर नहीं,
मुझे बताके, मुझे जताके, मुझसे नफरत से नहीं मिलेगा कुछ,
तथ्य की, सत्य की करो पूजा तो बदलेगा कुछ ना कुछ तो सचमुच...

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