Monday 23 June 2014

||| जिद्दी हुँ पर कपटी नहीं... |||

असली सूरत दिखाऊँ तो जिद्दी कहें सब,
तो क्या सबकी खुशी को ढोंगी जाऊँ अब,
चेहरा अनेक देख के सोचता हुँ मैं भी कभी,
किसी ना किसी मोड़ पे क्यों टूट जाते हैं सभी...

इसी कश्मकश मे बढ़ता चला गया हुँ मैं,
अर्थ-खोज़ मे उड़ता चला गया हुँ मैं,
नहीं सह सकता चाहे समझो कसूरवार जितना,
अपनी नज़रों मे उठा रहूँ क्या काफी है इतना...

जिद है मुझे और ख्वाईश भी है लड़ने की,
उम्मीद से भी ज़्यादा लत है झगड़ने की,
इस राह मे आए है ऐसे मुकाम कई मरतबा,
बन गया अटूट हिस्सा जिनका कोई न अर्थ था...

नहीं देख सकता अब ये नकली बनावटी लोग,
करतब करे अनेक पर मकसद सबका बस भोग,
बहोत हुआ अब बंद करो ये ढोंग स्वेत कृत्य का,

नादान नहीं सच्चे हैं वो जो टाल जाए ये छल ह्रदय का...

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